भारत में चिकित्सा विज्ञान का इतिहास क्या है। इसके महान चिकित्सक कौन कौन थे।
भारतीयों का विभिन्न रोगों और उनकी चिकित्सा का ज्ञान बहुत पुराना है। भारत ही चिकित्सा जगत् में समस्त संसार का गुरु है। चिकित्सा का ज्ञान भारत से ही चीन और अरब में पहुँचा। बाद में इसे अरब से यूरोपीय देशों ने लिया। यूनान का चिकित्सा साहित्य भी संसार को भारत के चिकित्सा साहित्य से लगभग 500 वर्ष बाद मिला। ईसा से कई सौ वर्ष पूर्व मिस्वालों और सुमेरियनों ने भी चिकित्सा-साहित्य रचा, किन्तु वह अधिक दिन जीवित नहीं रह सका ।
आज संसार की सबसे पुरानी पुस्तक ‘ऋग्वेद’ को माना जाता है।
वेदों में भी ऋग्वेद सबसे अधिक प्राचीन है। इसमें अनेक रोगों और उनकी चिकित्सा का उल्लेख किया गया है। ऋग्वेद की आयु का सही अनुमान लगाना सम्भव नहीं है। इसकी रचनाओं को सदियों तक एक पीढ़ी अमूल्य धरोहर के रूप में दूसरी पीढ़ी को मौखिक रूप से सौंपती रही और यह साहित्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी सदियों तक ज्यों का त्यों चलता रहा, लेकिन वैज्ञानिक आज इस तथ्य को स्वीकार करने लगे हैं कि लिखित संहिता के रूप में ऋग्वेद ईसा से 5 हजार वर्ष पूर्व भी विद्यमान था।
ऋग्वेद में ही भारतीय चिकित्सकों ने त्रिदोष सिद्धांत की चर्चा की है। इन्हीं सिद्धान्तों पर सारी भारतीय चिकित्सा पद्धति आधारित है। इन सिद्धान्तों के अनुसार, एक स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में वायु, पित्त और कफ इन तीनों चीजों का संतुलन होना आवश्यक है। जब शरीर में इनका संतुलन बिगड़ जाता है, तभी मनुष्य को रोग घेर लेता है।
अथर्ववेद
अथर्ववेद में विभिन्न रोगों तथा उनकी चिकित्सा का विस्तार से वर्णन किया गया है। चारों वेदों में यह अंतिम वेद है और इसका रचना काल ईसा से 700 वर्ष पूर्व माना गया है। इसमें अनेक प्रकार के रोगों की चिकित्सा के लिए 100 स्रोत दिये गये हैं।
अथर्ववेद में शरीर रचना का भी थोड़ा उल्लेख है। इसमें हाथ, कान, मुँह और नाक का वर्णन है। कुछ भीतरी अंगों का उल्लेख भी इसमें किया है, लेकिन उस समय के लोगों को शिराओं ओर धमनियों का अन्तर ज्ञात नहीं था। यह सभी जानकारी उन्होंने बलि किये पशुओं का अध्ययन करके प्राप्त की थी।
जल और जड़ी-बूटी का महत्त्व
उस समय औषधियों में जल और जड़ी-बूटियों का बड़ा महत्त्व था। समझा जाता था कि जल आत्मा और शरीर दोनों को शुद्ध करता है। जड़ी-बूटियों में सोम-वृक्ष बड़ा महत्वपूर्ण था और अनेक रोगों में उसका प्रयोग किया जाता था। बहुत से लोग जादू-टोने से भी रोगों को ठीक करने का उपाय बताते थे। रोगों को भगाने के लिए देवताओं और दैत्यों की पूजा भी की जाती थी।
आयुर्वेद
चार प्रमुख वेदों के बाद भारतीय ऋषियों ने कुछ उपवेद भी रचे । आयुर्वेद भी एक ऐसा ही उपवेद है। इसे चौथे वेद, अथर्ववेद का ही एक पवित्र विभाग माना जाता है। आयुर्वेद का अर्थ है ‘जीवन का ज्ञान’ । इसमें 100 अध्याय और एक लाख श्लोक हैं।
कई सदियों तक दक्ष, इन्द्र, भरद्वाज, भृगु, धनवन्तरी और अग्निवेश जैसे विद्वान् आयुर्वेद का विकास करते रहे। अग्निवेश ने ‘अग्निवेश संहिता’ नामक ग्रंथ की रचना की। उन्होंने अपने अन्य ग्रन्थों में पशुओं के रोगों का भी वर्णन किया है।
ईसा से 327 वर्ष पूर्व जब सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया तो वह यहाँ की चिकित्सा-पद्धति और चिकित्सकों की योग्यता को देखकर चकित रह गया था। उस समय चिकित्सक युद्ध के मैदान में भी जाते थे। विश्व में उस समय तक कहीं भी सैनिक चिकित्सा आरम्भ नहीं हुई थी और उससे पहले कहीं भी चिकित्सकों को युद्ध के मैदान में नहीं भेजा जाता था।
चन्द्रगुप्त प्रथम के मंत्री कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी चिकित्सा का उल्लेख है । उन्होंने वनस्पति और चिकित्सा विज्ञान के विकास का बड़ा विस्तृत वर्णन किया हैं इसमें चिकित्सकों के लिए अनेक नियम तो दिये ही गये हैं। राज रोगों (एपीडेमिक्स) को नियन्त्रित करने के तरीके भी बताये गये हैं। उस समय निःशुल्क चिकित्सा और अस्पतालों के क्या नियम थे, इसकी चर्चा भी उन्होंने अपने ग्रन्थ में की है।
टीके की खोज करने का श्रेय जेनर को दिया जाता है, किन्तु भारतीयों को बहुत पहले ही इस टीके का ज्ञान था। कर्नल किंग और पांडिचेरी के डॉ. हुइलेट के अनुसार-भारत में टीके लगाना एक साधारण बात थी और इसका उल्लेख अनेक स्थानों पर हुआ है।
तीन महान् चिकित्सक
भारत में आत्रेय, चरक और सुश्रुत नामक तीन ऐसे चिकित्सक जिन्होंने अपने कार्यों से सारे संसार को चकित कर दिया। ये तीनों महान् चिकित्सक किस काल में हुए, इस सम्बन्ध में इतिहासज्ञों में बड़ा मतभेद है ।
चिकित्सा-विज्ञान के जो ग्रन्थ आज मिलते हैं, उनमें आत्रेय संहिता ही सबसे प्राचीन है। इसमें 46,500 श्लोक हैं, आत्रेय ही भारतीय चिकित्सा की वैज्ञानिक पद्धति के जन्मदाता कहे जाते हैं, किन्तु डॉ. जी. वी. सत्यनारायण मूर्ति ने इन्हें चरक का शिष्य माना है।
भारत के महान चिकित्सा शास्त्री
सुश्रुत
आत्रेय
चरक
चरक दार्शनिक, ज्योतिषी और महान् चिकित्सक थे। उनके चिकित्सा सम्बन्धी ग्रन्थ ‘चरक-संहिता’ में आठ भाग और 120 अध्याय हैं। इनमें हृदय, पेट, छाती आदि के रोगों के लक्षण, रोगों को जानने का तरीका और उनकी चिकित्सा-विधि भी बताई गई है। उन्होंने इस बात की भी चर्चा की है कि पिचकारी (सिरिन्ज) तथा चिकित्सा के दूसरे यन्त्रों का प्रयोग किस प्रकार किया जाता है। औषधियों, खुराक और विष-नाशक औषधियों के सम्बन्ध में भी चरक संहिता में अध्याय दिये गये हैं। उस समय वह ‘एनीमा’ और ‘परगेटिव’ का प्रयोग भी जानते थे। उन्होंने अस्पताल और विशेषकर बच्चों के अस्पताल बनाने के निर्देश दिये हैं। अस्पतालों के बिस्तरों और चादरों को भाप से साफ करने का तरीका भी उन्होंने बताया था।